Wednesday, 19 December 2018

"उम्र का प्रेम"

दौड़ता रूकता
ठहरता उड़ता
चढ़ता उतरता
मन तो बावरा है
निश्चिल प्रेम की चाह में
दर दर भटकता रहता!
जब देखा उसकी शेर सी
चाल चिंता सी स्फूर्ति
तोते सी आवाज
चाँद सा चेहरा
हीर का दिल हुआ
मजनू का दिवाना!
बढ़ती उम्र का चढ़ता परवाज था
रोके भी ना रूकता था
नैन में नैन भिड़ते ही
उम्र की बीच दिवार बनी
बीच सेतू न बन सकी!
लड़की उसे चाहती थी
छोटा है तो क्या हुआ लड़का है
लड़का सोचता था
मेरी माँ कुछ ही छोटी है
सम्मानतुल्य है प्यार कैसे करूँ?
मोहब्बत इट्ट की भट्टी है
तपने पर सोना बनती
सच्चा प्रेम होता तो अग्नी परीक्षा देता
एक तरफा फितूर था
शराब के नशे सा उतर गया!
छोड़ गया कई सवाल
जिन्हें ढूढ़ने में उम्र निकल गई
उम्र भी रोड़ा बन जाती
जिंदगी के ही सफर में!
एक दिन मेरी भी गुजरेगा
और एक दिन उसकी भी
किसकी ठहरी है यहाँ
ये तो रेत है एक दिन
हाथों से फिसल जाएगी!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार
19/12/18

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