सिन्दूर सी लालीमा लिए
खिली खिली सी पाखुड़ियाँ
भँवरो का मन ललचाती
देखने वालों को भरमाती
काली माता को बहुत भाती
भक्त आर्शिवाद में माता को
रंग बिरंगे अड़हूल चढ़ाते!
बच्चपन में मेरे आँगन में
बड़ा सा अड़हूल का पेड़
पहले छोटा था तो झटपट
हम सब के सब तोड़ लेते थे
जैसे जैसे हम बढ़ते गए पेड़
हमसे दुगूना बढ़ते गए
अब कैसे तोड़े अड़हूल
बिन फूलों के काली माता की पूजा
हो सकेगी ना संपन्न!
हेरान जब बच्चे हो जाते तो
माँ ने एक युक्ति सुझाई
बाँस की लग्धी बनाकर
तोड़ लोंगे तुम सारे फूल
फिर तो हम खुशी से झुमे
सुबह सुबह फूल तोड़ने में
हम सारे जो लग जाते थे
पढ़ाई पर न रहता था ध्यान
मास्टर जी हाॅमवर्क रह जाता
माँ को घर के कामों से
ना मिलता कभी आराम
पापा भी ड्यूटी में लगे रहते
खुला आँगन में आया
कमरा बनाने का नया विचार
अड़हूल का पेड़ की डाली का
जलावन में हुआ प्रयोग
ना रहा आँगन ना ही पेड़
शहरीकरण ने छिन लिया
मेरा अड़हूल का पेड़!
कुमारी अर्चना
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार
22/12/18
Saturday 22 December 2018
"मेरा अड़हूल का पेड़"
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