सेब मेरे मन को बहुत है भाता
जैसे आकाश में हो चाँदा मामा
लाल,पीला और गुलाबी देखकर
अच्छे अच्छों का जी ललचाता!
सब्जी खाने में लगती तीखी
रोटी तो लगती सूखी सूखी
क्या खाऊँ क्या न खाऊँ
मेरी कुछ समझ नहीं आता
भूखा मुझे रहा नहीं जाता
बाकी सारे फलों में वो मजा नहीं
जो मझको सेब में आता!
पापा जब भी जाते बाजार
मैं चोकलेट की जिद्द ना कर
सेब सेब की रट लगाता
माँ कहती इतने में तो
तुम्हें दस का पाहड़ा याद हो जाता
मैं किसी की एक ना सुनता
दादी क्यों ना सुनाती कहानी
दूध देखकर मैं मुँह ऐठता
जैसे हो कोई चीज पुरानी
मुझे तो ना भाँती माँ की लोरी
जब तब मिलती सेब प्यारी!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
20/12/18
Thursday 20 December 2018
"सेब प्यारी"
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