कुकरू कुकरू कर जगाता मुर्गा
चूँ चूँ बड़बड़ाती तब गौरैया
पंख फैला कर नाचती तितली
गुटर गूँ,गुटर गूँ कर बोलता कबूतर
मेय मेय कर चिलाता बकरा
मिठ्ठू मिठ्ठू कर पुकारता तोतो
माँ माँ कर बुलाती गईया
जोर जोर से दम लगाती बछिया
भौ भौ कर भौकता कुत्ता
तब भाई बहन की आँख खुलती
हम सब रहते एक ही घर में मिल जुल कर
एक परिवार की तरह
इस चिड़ियाखाना में रहते!
भाई बहन के द्वंद में मुर्गे का
काम तमाम हुआ
माँ की मन्नत में बकरा(खस्सी)
देवी को बलि चढ़ी मिठ्ठू बारिश के पानी में
नहाते नहाते ठंड से मरा
फूल सारे खत्म हूए तितली परदेश चली गई
गईया के साथ बछिया
बधिया(कसाई )के हाथों बिक गई
पेड़ पौधे भी कटने से गौरया रानी रूठ
किसी ओर के घर चली गई
खोप खुले रहने से कबूतरों बाहर
दाना चुनने फुर्र हो गए
भौ भौ करता जाॅनी को
जहर देने से मौत हो गई
घर के सारे बासिंदे बिछड़ गए
हमारा कुनबा टूट कर बिखर गया!
ऊँची ऊँजी जेल जैसी दिवारे थी
खिड़की थी पर खुलती ना थी
बाहर सड़क थी अंदर
घर सुरक्षा कारणों से
स्कूल भी नहीं जाते थे
पिता पुलिस में थे थानेदार थे
आए दिन चौर और बदमाशों के
धमकियों भरे खत आते थे
गब्बर आएगा सबको मार देगा
भय के साये में बच्पन बीता
घर पर ही दोनों टाइम ट्यूशन चलता
धीरे धीरे हम सब चिड़ियाखाना के कैद के
बंदी बनकर रह गए जो
दो टांगे रहकर भी भाग नहीं सकते!
कुमारी अर्चना
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार
27/12/18
Thursday, 27 December 2018
"मेरा घर एक चिड़ियाँखाना"
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