Thursday 27 December 2018

"समाज का मेहतर हूँ मैं"

ब्राह्मा के पादुका में
समाज के निचले स्तर पर
मेहतर कहलाता हूँ मैं
उतर वैदिक काल से
कलयुग तक का सफर
बहुत से उतार चढ़ाव आए
पर मैं एक सा रहा है!
तुम्हारे अंदर और बाहर की
गंदगी झाड़ता,फूंकता हूँ
मन को साफ नहीं कर पाता
वक्त दर वक्त परते पड़ती गई
और मैं मेहतर का मेहतर रहा!
काश् कोई मुझे भी झाड़ फूंक कर
साफ कर पाता जैसे कपड़े,बरतन और
कागज सर्फ,साबुन और वाइटनर से हो जाते
पर मैं कितना भी साबुन मलूँ
चाहे तो गंगा ही क्यों ना नहा लूँ
मेहत्तर का मेहतर रहता!
फर्क बत इतना है कि पहले
अपने ही पदचिन्हों झांडू से
मिटाता चलता था अब दूसरे के
परचिन्हों को!
अनुसूची जाति का दर्जा व
आरक्षण का लाभ पाकर भी
समाजिक स्तर पर खूदको
मैं कभी ना उठा पाया
आर्थिक स्थिति में भी
अन्य जातियों से तुलना में
पीछे का पीछे ही हूँ जैसे
पहले मेरी थी!
क्या मैं मेहतर ही रहूँगा
क्या मेरी मुक्ति संभव नहीं
जैसे बुद्घ और जैन की हुई
मेरी गंदगी के सफाई से!
ये काम तो हर इन्सान
स्वं के लिए करता है पर
समाज की गंदगी ढोना
मेरा ही कर्तव्य और कर्म
क्यों बन कर रह गया और
मेरा सम्मान भी शेष!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
27/12/18

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