इन पत्थरों की मूर्तियों की तरह
मैं भी पाषाण बन जाउँगी
और मेरे युुग का इतिहास भी!
ढूँढ़ते रहोंगें तुम मुझे अवशेषों में
फिर भी मैं ना मिलूँगी!
मिश्र व सिन्धु की सभ्यताओं जैसी
इस सभ्यता के अंत के पश्चात
मैं भी पुरात्वविद्धों के खोज की
वस्तु जैसी बन जाउँगी लिपि,मूर्ति,बरतन,
अवशेष भवनों और महत्वपूर्ण स्मारक
जैसे हडिड्यों के ढेर
के बीच बिखरे होगें मेरे कंकाल!
कार्बनपद्धति से होगा निर्धारण मेरा
मेरा समय क्या था
मेरी सभ्यता व संस्कृति कैसी थी
मेरा समाजिक व आर्थिक जीवन कैसा था
मेरी मृत्यु किन कारणों से हुई थी
और ना जाने क्या-क्या!
मैं तुमसे मिलने कब कब गई
मैं तुमसे कितना प्यार करती थी
कोई भी कार्बन पद्धति बता ना पाएगी
क्यों असमय कालकलविन्त होकर
मैं पाषण बन गई!
कुमारी अर्चना
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार
४/२/१८
Friday, 2 February 2018
"पाषाण बन जाऊँगी"
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment