जीवन का एक सपना है
जो बीच में अधुरा रह गया
राष्ट्रपति भवन के फूल चुराने का
फूलों की बगीया से एक दिल चुराने का!
पहले एक बार कोशिश की थी
नकाम़याब रही भाई ने बीच टोक दिया
अगर तोड़ा यहाँ फूल तो
तुमको सजा होगी गंभीर
बेज्जती सो अलग से
मैं भी नहीं बचाउँगा!
सजा का ना कोई डर था
पर बेज्जती का असर जबर्दस्त था
बोधगया में तो संजीवनी बुटी का
फूल चुराई थी चुपके से
हाथ के पीछे से छुपाया था
वो भी टहनियों सहित!
बच्चपन में किसी के घर के
फूलों को ना छोड़ती थी
उचित सुअवसर की तांक में हूँ
तोडँगी एक दिन
मुझे फूल चोरनी से
ज्यादा दिन बच ना सकेगें
राष्ट्रपति भवन के फूल!
अगर पकड़ी गई तो
अब बहाना भी है कवयित्री हूँ
कविता कर रही थी नाजुक फूल थे
हाथ में आ गए।
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
९/४/१८
Tuesday, 6 February 2018
"राष्ट्रपति भवन के सुन्दर फूल"
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