"मरघट"
मरघट हूँ मैं" जीव का मोक्ष है यदि ईश्वर
तो शरीर का मोक्ष हूँ मैं! फिर मेरा नाम आते ही आत्मा क्यों कांप जाती सबकी
इतना द्वेष व धृणा क्यों मुझसे
मानव बस्ती से अति दूर रहता हूँ
फिर भी भय रूप में उनके जेह़न में बस जाता हूँ ! मानव कंकालों का घर हूँ सड़ी गली लाशों का ढ़ेर हूँ इसलिए शमसान भी कहते है मुझे! जलते शरीरों के अंगों व उड़ते राखों का अवशेष हूँ मरघट हूँ मैं
जो आया है यहाँ वो एक दिन मेरा पास आएगा मैं शरीर की अंतिम यात्रा हूँ परमात्मा से मिलन की! कुमारी अर्चना मौलिक रचना पूर्णियाँ,बिहार १५/३/१८
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