मैं वैश्या स्वतंत्र नारीहोकर
भी परितंत्र हूँ
मैं इन्सान नहीं
"उपभोग की जीवित वस्तु" हूँ
जिसे पुरूषों द्वारा यौन तुष्टि के
लिए
खेला जाता खिलौना के भाँति
जब तक टूट ना जाती!
और सतिसावित्री नारियां
परितंत्र होकर भी स्वतंत्र है
मुझ पर हँसती है थूकती है
जब मैं सड़क पर चलती हूँ
मैं चुप होकर सब देखती हूँ
दुनिया मुझे "गंदी"कहती है
पर मैं समाज में मेहतर के समान हूँ
जो समाज का गंदगी तो ढोता है
पर खुद को साफ नहीं कर पाता है !
सतिसावित्री स्त्री समझती है
मैं उनका घर तोड़ रही हूँ
पर मैं तो अपना घर ना बसा
उनके घर को टूटने से बचाती हूँ
अगर मैं ना रही तो
तुम्हारे घरों को
वैश्यालय में
तबदील होने में
देर ना लगेंगी !
मैं वैश्या जिसका तन और मन
रोज कई बार लूटा जाता
मैं बस इतना चाहती हूँ
मेरी दुकान सदा चलती रहे
तुम्हारे नाजायज बच्चों का पेट पलता रहे !
हाँ मैं वैश्या हूँ
इसमें मेरा क्या कसूर
वैश्या माँ की पेट से पैदा नहीं होती
उसको वैश्या बनाया जाता है
समाज के ठेकेदारों द्वारा!
मैं वैश्या देह बेचती हूँ
वह भी अपनी मर्जी से नहीं
दुसरों के इशारों की लौडी हूँ
पर बेमान,भष्ट्र,देशद्रोही,कातिल़
तो
अपनी ईमान बेचते है
पर कोई उनको क्यों नहीं
समाज से बहिष्कृत करता है!
मैं गंगा जैसी हूँ
वो भी मैला ढोती है
मैं भी
फर्क बस इतना है
मैं केवल तन का
वो तन व मन दोनों का!
गंगा पर क्या बितती है
ना कोई देखता है ना मुझ पर
गंगा भी घुट घुट कर
मौन हो जाती
मैं भी!
सबकी नज़रों में मैं केवल देह हूँ
इन्सान नहीं
जिसकी कोई इच्छा हो
जिसकी कोई भावना हो
जिसका कोई सपना हो!
मेरे आँगन की मिट्टी तो पवित्र है
माता के नैन में सज जाती है
पर
मैं अपवित्र हूँ
किसी के आँगन की
शोभा नहीं बन सकती!
मैं वैश्या बने नहीं रहना चाहती हूँ
मैं भी घर परिवार चाहती हूँ
अपने संगे संबधी चाहती हूँ
इस ज़िल्लत भरी जिन्दगी से
आजादी
चाहती हूँ
पर ये कैसे होगा?
ना मेरा परिवार
ना मेरा समाज
मुझे वापस बुलता
ना ही
लौटने पर सहारा देता
फिर से उसी गंदगी में
वापस जाने के सिवा
मेरे पास कोई चारा बचता !
मैं इस ज़िल्लत भरी जिन्दगी से
आजादी चाहती हूँ
अगर
ये समाज मुझे दे नहीं सकता तो
मेरे कायों को भी अन्य कार्यो
जैसा ही सम्मान दें
मैं भी आप जैसा इन्सान हूँ
इन्सान होने का दर्जा माँगती हूँ!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ, बिहार
15/3/18
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