Tuesday 6 February 2018

"काश् तुम बादलों में होते"

बादल उड़ते है
मैं भी उड़ना चाहती हूँ
दुधिया दुधिया से रंगे
कपास की तरह!
बच्चपन में रोज सोचा करती थी
मैं कब उडूँगी!
कभी पास आते तो कभी दूर
जैसे आगे बढ़ती ये भी बढ़ते
जैसे दौड़ती ये भी दौड़ते
जैसे रूकती ये भी रूकते
जैसे हँसती ये भी हँसते
जैसे रोती ये भी रोते
ताज्जूब नहीं होता
अपनी खुली आँखो पे
ये कैसा जादू है कभी
पलके बंद कर सोचती
आखिर ऐसा कैसे होता है
कभी पकड़ नहीं पाती
इनको जैसे तुम्हें!
कभी पापा तो कभी दोस्त
तो कभी पेड़ तो कभी पक्षी
तो कभी भगवान की
आकृतियाँ बादल में उभर आती
जो भी प्यारे लगते मुझे
सबके सब नज़र आते
पर तुम क्यों नहीं दिखते
उड़ते बादलों में!
मैं रोज रोज ढूढ़ती हूँ
तुमको बादलों के टूकड़ों टूकड़ों को
साथ जोड़ कर पर तुम्हारी
छवि नहीं बुन पाती!
क्या अब ये पराये हो गए
मेरे या तुम बिसार चुके
मुझे कोई पुराना गीत समझकर
जो ओंठों पे भूले से भी
गुनगुनाया नहीं जाता!
पर मुझे सब याद है
बादलों में तुम्हारी वही
मोहक छवि दिख जाती
तो मेरे साँसों की उम्र थोड़ी
और लंबी हो जाती
तुम दिखोगें ना वादा करों!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
९/४/१८

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