वैसे तो मुझे उत्सवों में रंगोली जैसा
नाजुक नाजुक हाथों से बनाया जाता!
पर मैं तेरे सख्त़ हाथों से बनना चाहती
चावल की तरह तेरे प्यार में मिटकर
तेरे जीवन में आनंदरस भरना चाहती!
तेरे लिए मैं अल्पना बनना चाहती
मेहदीं सी घिसकर तेरे हाथों पर
प्रेमरंग भर देना चाहती हूँ!
तेरे लिए मैं अल्पना बनना चाहती
तेरे आँगन की तुलसी सी बनकर
बुरी हवाओं से तुझे बचाना चाहती!
तेरे चौखट पर काला टिका सा बनकर
तेरे हर बलाओं को अपने उपर लेना चाहती! तेरे कोहबर घर की दीवारों पर सजकर
तुझपर समर्पण और अर्पण होना चाहती!
तेरे लिए मैं अल्पना बनना चाहती
फूलों की खुशबू सी बिखर जाना चाहती! कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
१६/४/१८
Tuesday, 6 February 2018
"तेरे लिए मैं अल्पना बनना चाहती"
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