मुर्गा से बोली मुर्गी
चले कहीं करेंगें कुकरू कु
मुर्गा बोला चल मेरी लैला
बनाके मुझे अपना छैला
जहां चाहे तू ले चल
अब तेरे हवाले खुदको किया!
बस एक तू वादा मुझसे कर
साथ जियेंगें साथ मरेगें
मुर्गी बोली कुकुरू कु!
फिर ले गई घने जंगलों की बाबड़ी में
जहां उसकी आशिक दुबका पड़ा था
अपने चार पाँच लफंगे यारों के साथ
झपट पड़े चील कौऔ की तरह
सब उसपर बेचारा ना चिखा
ना ही चिल्लाया ना कोई उसकी
पुकार सुन बचाने का आ पाया
सबने मिलकर खुब़ पिकनिक मनायी
संयोग से रविवार का वो दिन था
मुर्गा अंतिम बार बस इतना बोला
कुकरू कु मेरी लैला!
बेचारा धोखे के बुने जाल में फंसकर
सच्चे प्यार की भेंट चढ़ा!
जैसे आये दिन प्रेमी प्रेमिका को
प्रेमिका प्रेमी को टपका देते है!
तो कभी ये युवा प्रेमीयुगल
जाति,गोत्र,धर्म व सामाजिक परिपाटी
के कायदे तोड़ने पर परिवार,
समाज व पचांयत वालों के
हथ्थे चढ़ जाते है!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना©
४/२/१८
Sunday, 4 February 2018
"मुर्गा से बोली मुर्गी"
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