Tuesday 6 February 2018

"कागज ही तो मैं"

सफेद सी रंगहीन सी उजास सी
उपर से नीचे तक एक सी!
कागज सा है मेरा जीवन कोरा
कुछ प्यार की बूँदे को छिड़का था जब तुमने
पर भींग ना सकी मेरा मन
परती जमीन सा फिर हो गया
ना कोई बीज जमीन की गर्भ में गया
ना कोई पौधा ही उगा सका
बस उजड़ का उजड़ रह गया!
आज भी मेरे कोरे पन्ने जी भर के
भिंगना चाहते है पर तुम
भींगाने के लिए नहीं हो!
कुछ लिखे बिना ही तुमने
मेरे जीवन के पन्नों पे
अपनी अष्टछाप छोड़ दी
मोहब्बत की ऐसी दाँस्ता
जिसे मैं आज भी गा रही
पर सुरों की कमी है
मेरे गीत में वो तुम हो!
कागज पर कोई गीत सुर और ताल के
मिलाप से लिखा जाता है तो क्या
मेरे जीवन का कागज यूँ ही कोरा रहेगा!
कोई काली स्याही अगर
इन पन्नों पे डाल दें तो मैं क्या करूँगी
क्योंकि कागज या तो
प्रयोग होने के लिए होते या
कुछ लिख कर फेंकने के लिए
कुछ ना भी लिखा जाए तो वक्त
उन्हें पुराने कर देता धीरे घीरे
बेकार होने के लिए!
कभी दीमक तो कभी
कोई चूहा कुतर देता छोटे छोटे टूकड़ो में
फिर वो जुड़कर एक नहीं बन पाते
अस्तित्व तक शेष ना रह पता!
क्या तुम बिन मैं कोरा कागज
जैसी ही बन जाउँगी!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
१२/५/१८

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