मैं खुद को पढ़ रही
परीक्षक हूँ मेरी अंर्तआत्मा की
उनको टटोल रही
खुद को मैं जान रही
भलि भाँति पहचान रही!
मैं कितनी तहों के अंदर हूँ
अपने ऊपर पढ़े जिल्दों को गिन रही
कितनी अंदर हूँ या कितनी बाहर
आज मैं जानकर रहूँगी
इस पूर्णसत्य को!
रावण के दस मुख थे
दुर्गा के बारह हाथ शिव के त्रि-नेत्र
राक्षस बदलते कई मायवी रूप
फिर मेरे कितने चेहरे है जो
मैं रोज रोज बदलती हूँ
कभी तो पल में बदलती हूँ
और हम सभी आओ आज खोल दें
ढके मन के खोलों को!
कुमारी अर्चना
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार
12/5/18
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