जब करूँ श्रृंगार तेरे नाम से
मुझे ये गहने बहुत भाए
भार का एहसास भी इनके
जाने कहाँ छू मंतर हो जाए!
कुछ जादू है तुम्हारे प्यार में
मैं ऊपर से नीचे तक क्यों लद जाऊँ
इन गहनों से तुम पुकारों
तो दौड़ी चली आऊँ!
श्रृंगार तो रूप का कर रही
पर सज तो रहा है मेरा मन
अपने भोले पर होने को अर्पण
बन के पार्वती का अंग!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
९/४/१८
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