मैं मुख्खा हूँ
लहलहाती खेत है किसान की
एक मात्र हूँ इसका रखवाला
मैं मुख्खा हूँ !
भरता हूँ सबका पेट पर
रहता सदा भूखा!
कोई नहीं देखता मेरा पेट
सब ऊपर ऊपर देखते है
हट्टा कट्टा दिखता है
तभी तो टिड्डों से रखवाली करता है!
मैं बुरे लोंगों के नजरों से
फसलों को बचाता हूँ
रात अंधेरे भूत का भय बनके
लोंगो को डराता हूँ
मैं मुख्खा हूँ!
कभी चोर मुझमें उलझ कर
आँधे मुँह गिर जाता है
और पकड़ा जाता है
जुर्माना भी उस पर कड़ा
पंचायत का लग जाता है
मैं मुखा हूँ!
पर मैं उस गरीब किसान का प्रतिक हूँ
जो एक जून तो खाता है
दुजा आँखो में काट देता है!
जब खड़ी खड़ी फसल खेतों में ही
सुख जाती मेरी आत्मा जल जाती
मैं भूखा वही रह जाता हूँ!
जब बारिश के पानी से
बिचड़ा सड़ जाते है जैसे
मेरा नन्हा लल्ला बिना
अन्न के एक दाने के
माँ की छाती से
चिपट कर मर जाता
मैं भूखा वही रह जाता हूँ!
मैना बादुर जब फांक जाते
सारी फसलों को किसान
ऋण के बोझ से दबकर मर जाता है
वो फांसी के फंदे पे
बिन बलि के चढ़ जाता है
कागजों में ही उसका परिवार
हर्जाना पाता है तब सरकारी नीतियों को
पोलियों मार जाता है
मैं मुख्खा वही भूखा रह जाता हूँ!
मैं मुख्खा हूँ!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
28/12/18
Tuesday, 6 February 2018
"मैं मुख्खा हूँ"
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