आशा सहनी का कंकाल क्या कहता है!
जऱा फुर्सत में बैठ के सोचे ऐ सभ्य समाज
एक वृद्ध भी यहाँ कमरे में
वर्षो से बंद बंद रहता है!
हाड़ मांस गल गल कर
अस्थी पंजर बस बचता है
मानवता क्या महानगरों में
दिन में भी सोता है!
चौबीस धंटे इन्सान केवल
मशीन बना नोटों को छापता है
ये नोटो से कैसे तुम्हारा नाता है
जो अपनों का सहारा ना बन सके!
बेटा ही माँ -बाप की चिंता को
मुखाग्नी दे मुक्ति देगा हिंदु धर्म ऐसा क्यों कहता है!
बेटी क्यों नहीं दे सकती
जब वो भी माँ के गर्भ में नौ महीने
बेटे जैसे ही पलती है!
होती अगर आशा सहनी की एक बेटी
अंतिम अवस्था में सेवा सत्कार वो पाती
और उसकी आत्मा भी शरीर से मुक्त होकर
ब्रह्म में लीन हो स्वर्ण को जाती
अब तो यहाँ बेटे के इंतजार में
बैठी रह जाएगी बेटा ऑडहोम में छोड़ेगा
या साथ विदेश ले जाएगा!
आशा सहनी का कंकाल ऐसा कुछ कहता है!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना©
9/1/18
Tuesday, 6 February 2018
"आशा सहनी का कंकाल"
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