बह रही दूग्धधारा तेरे स्तन से
माँ तेरा दूध है मेरे लिए अमृत सा
माँ दोगी मुझको नव्य जीवन
माँ छूटकू पेट भर पीता
बचा दूध मुनियाँ को दे दो माँ !
तुम्हारी ही तो मैं भी अंश हूँ
फिर मुझसे तुम्हारी बेरूखी क्यों माँ!
बह रही दूग्धधारा तेरे स्तन से
माँ यूँ बेकार समझ बहा दोगी बचा दूध तुम
माँ वक्त ना पीने में मैं लूँगी
झटपट पी लूँगी माँ
छुटकू के जागने से पहले !
ना पिलाओगी तो सुख जाएगा दूध
माँ मैं जी तो लूँगी नकली दूध पीकर
पर छुटकू जैसा बलवान ना बन पाउँगी
कैसे बड़ी होकर शरीर के भूखे
भेड़ियों से लडूँगी !
कुपोषण से जीवनभर ग्रसित रहूँगी
मुझे अनेक बिमारियाँ
असमय जकड़ लेगी मुझको
आगे माँ भी बनना है
फिर क्यों नहीं समझती तुम माँ !
बह रही दूग्धधारा तेरे स्तन से माँ
ना कराओगी स्तनपान तो
हो सकती है कैंसर जैसी
लाइलाज बिमारी तुमको माँ
ग़र तुमको कुछ हो गया तो
फिर किसको कहूँगी मैं माँ !
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
६/२/१८
Tuesday, 6 February 2018
"स्तनपान"
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