"मेंहदी हूँ मैं"
मैं स्त्री मेंहदी जैसी ही हूँ मेंहदी भी खुद पिसकर दुसरों के हाथों में रंग भरती है मैं स्त्री भी जिन्दगी भर
खुद पिसकर पुरूषों के
जीवन मेंखुशियाँ लाती हूँ ! कभी पिता के मान के लिए कभी प्रेमी के प्यार के लिए कभी पति के सम्मान के लिए कभी पुत्र के दुलार के लिए कभी परम्पराओं के नाम पर कभी वंश के नाम पर कभी संस्कारों के नाम पर कभी परिवार के नाम पर मुझे मेंहदी बनना पड़ता है तो कभी बना दी जाती हूँ ! स्त्री हूँ मैं इसलिए मुझे पिसना होगा मुझे घिसना होगी मुझे टूटना होगा मुझे मिटना होगा मुझे दया रखनी होगी मुझे लज्जा करनी होगी यही मेरी गहना है ! मेरा स्वाभिमान
मेरा वजूद मेरा शरीर
मेरा गर्भ मेरा अघिकार
मेरी स्वतंत्रता सब मेरे कक्तव्यों व दायित्वों के अधीन है क्योंकि मैं स्त्री मेंहदी जैसी हूँ ! कुमारी अर्चना पूर्णियाँ,बिहार, मौलिक रचना ११/५/१८
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