माँ तेरी वो लाल पीली
हरी नीली चुड़ियाँ बहुत भाती थी
जब पहनती थी तुम अपने हाथों में
जी करता था मैं जल्दी बड़ी हो जाऊँ
फिर भरे-भरे दोनों हाथों में
पहनूँगी मनचाही चुड़ियाँ
बार बार मेरे प्रयास करने पर
टोका टोकी करती थी तुम
फँस जाएगी चुड़ी हाथों में
पर मैं दाँत निकाल हँस दिया करती थी ही- ही
छुपके बार बार अभ्यास करने में
बाँए हाथों में टूट फँस गई थी चुड़ी
समझ ना पाई क्या करूँ
जोर लगाकर जब खींचा
चुड़ी के साथ हाथों की चमड़ी भी कट गई
डाॅक्टर ने फुसलाकर टाॅफी खिलाई
सात टाँके कटे पर लगाए
फिर भी माँ की चुड़ियों से मेरा मोह ना गया
बड़ी होकर चुड़ी -चुड़ी का खेल खूब खेली
कभी टूटी चुड़ियों से तो कभी चुड़ियों को तोड़
माँ को पता चल जाता
कि मैंने सिंगार टेबल से चुड़ियाँ निकाली है
वो झूठ मूठ का गुस्सा करती
क्योंकि उनको डर था कहीं मैं फिर से
चुड़ियाँ हाथों में ना तोड़ लूँ
आज भी उन चूड़ियों की
खनक याद है मुझे
माँ को उन टूटी चुड़ियों के
एवज में,मैं आज भी देती हूँ चुड़ियाँ!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार
Wednesday, 6 February 2019
"माँ तेरी वो चुड़ियाँ"
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