आदमी जब रोज रोज
देख देश की स्थति पर चिल्लाता है
रोज बढ़ती मँहगाई पर
खुलकर हँस नहीं पाता
मेहनत कर भी कमाई का
कुछ बचा नहीं पता!
कालाधन के नाम पे सरकार
गरीबों की उम्र पूँजी जप्त करत लेती
अमीरों के पैसे स्विस बैंक की शोभा बनाते
यहाँ गरीब की गरीबी तमाशा बनती
बच्चों के एडमिन के नाम पर
लाखों डोनेशन की फीस भरके भी
शिक्षा व्यवस्था पर न रोता है
अपने अमीरों के कुत्ता पैदा न होने पर रोता है!
मर जाने पर लाश न बोलती तो
मीडिया बार बार भौंक बताती है
नेता अशवासन की घुट्टी
जनता को पिला वोट बैंक वसूलती है!
आखिर और कब तक हम
आम आदमी बेवकूफ बनते रहेंगे
खून जलाकर पसीना बहाते रहेंगे
सब्र की भट्टी में तपते रहेंगे
आश की चाहत में यूं जिन्दग़ी
आधी पेट काट काटकर जीते रहेंगे!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
पूर्णियाँ, बिहार मौलिक रचना
Friday, 22 February 2019
"जंदा लाशे क्यों नहीं बोलती है"
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