मेरी घुँघट है
किसी पर को सीधे सीधे ना ताकने की
क्योंकि नजरों से नजरों मिली तो
मेरे आवाँरा होने का भय
तुमको सताता है और तुम
परस्त्री के साथ जो चाहे करों
मैं अपनी खुली आँखे भी बंद कर लूँ
सदा के लिए ये तो ना होगा
मुझसे अगर मैं मर्यादा समझ
ओढ़ रही ये ओट तो
तुम भी असीम ना हो
मर्यादा की पोटरी
लाज का कफन
संस्कारों का बोझ
परम्पराओं की बेड़ी को
मैं कब तक ढ़ोउँ
इसलिए मैंने सब उतार दी
तुमने मेरी स्वतंत्रा को
स्वच्छंदता कहा
मेरे परपुरूष से मित्रता को
"चरित्रहीनता"कहा जो चाहे कह दो
अब मैं और घुँघट की ओट
मैं ना रहने वाली अच्छा हो कि
मैं इनसे आजाद होकर मरूँ
चाहे तुम्हारे हाथों से!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना पूर्णियाँ,बिहार
Tuesday, 26 February 2019
"ओट"
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