अंदर ही अंदर घुल मिल रहा
था बाहर सुखा सुखा था
उजड़ा उजड़ा था
काला अंधेरे तैरता था
उजाला कहीं अंतस में
दूबक सिसक रहा था
हाथ बढ़ाकर भी मुठ्ठी पर
धूप को कैद नहीं कर सकता था
अपनेउजाले के लिए!
वो कुंठित था हीन भावनाओ से
वो कुंठित था अकेलेपन से
वो कुंठित था दूसरे के व्यवहार से
वो कुंठित काम की इच्छा था
वो कुंठित था आज्ञात भय से
वो कुंठित था असफलाओं से!
आज का मानव पता नहीं
सुख सुविधारत होकर भी
अपनी ही समस्यों में फंसा है
वो लक्ष्मण रेखा खुद को घेरे में
रखकर खींच चुका है
दूसरी के बारे में सोचना तो दूर
बात तक नहीं सुनना चाहता है!
हम किस दुनिया में जी रहे
जहाँ बाहरी दुनिया तो
इटरनेट पर ग्लोबल है
परन्तु आंतरिक दुनिया खुद की
चार दिवारी सीमित है
कब हमारी आंतरिक और
बाहरी दुनिया का समागम होगा!
ये कुंठा कब दूर होगी या
ये भी एक भयानक जानलेवा रोग
बन जाएगी जो मानव को अंदर ही अंदर
जर्जर व दिशाहीन कर देगी!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
Friday 22 February 2019
"कुंठा"
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