पाबंदियों के पैबंद
जाने कितने लगे मुझ पर
कभी तुमने थोपे कभी समाज ने
कभी मैंने खुद को ढो लिए
स्त्री धर्म समझकर,जाने कितने?
गिनने लगूँ तो ये ज़िदग़ी बीत जाए
कभी पाँव की पाज़ेब बनकर
कभी माथे की कुमकुम बनकर
ये प्रतीक चिन्ह है तुम्हारे जो
सदा रहते मेरे पास लाश तक जाते
मेरे साथ कि मैं तुम्हारी हूँ इस शरीर में!
पंख तो मेरे पास भी हैं
पर आसमान में कटे परों से
मैं उड़ान भर नहीं सकती सिवा फड़फड़ाने के!
कोशिश करती रही हूँ
सदियों से सदियों तक
प्रतिकों की आजादी के लिए
और करती रहूँगी!
मुझे नहीं पता बस इतना जानती हूँ
करते रहना है जब तक तुम पुरूष मुझे
आजाद ना कर दो पाबंदियों के पैंबंद से!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार
Thursday 21 February 2019
"पाबंदियों के पैबंद"
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