दुल्हन का नथ सोलह सिंगारों में एक
उलट पलट कर जब वो
सजती संवरती दर्पण में
सजना को रिझाने वास्ते!
सोलवीं शताब्दी की परम्परा
मुगल धराने की महिलाओ के
श्रृंगार में सजती चली आई
दिलों में बसती चली आई!
एक नथ जब उतरता किसी अबला का
सब कुछ लूट जाता
सुहागन की जब नथ उतरता
गृहस्थी बस जाती
नथ तो दोनों एक ही है
फिर दोनों के रूप अलग क्यों?
नथ बेचारी दोषी बन जाती
ना वो माथे का टीका है
जो शान से चमकती रहे
ना अँगुठी है जो शोभा बने
ना हाथों की चुड़ी है
जो खनक कर बजती रहे
ना ही पाँव का बिछवा है
कदमों में रहकर भी मान पाए!
कभी तो नथ भरी भर का
औरत की नाक में जानवरों जैसे
नाथ दी जाती जो जीवन भर
गुलामी की कील सी चुभती ही रहती
तो कभी गँवारू की पहचान
नथ तो सौभाग्य का प्रतिक है
जो कभी कुवांरी की प्रतिक थी
बदलते दौर में "फैंसन" बन गई है!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
Thursday, 7 February 2019
"नथ"
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