काली काली सी तोड़ रही थी
कठोर हाथों से नाजुक सी लकड़ी!
पतरी छितरी सी काया थी
पर गदराया था उसका सीना!
कभी गिरे पत्तों को चुनती तो
कभी छोटी टहनियों को तोड़ती
कोई हथियार भी ना था पास नहीं
तो चीर देती उसका सीना!
बस नाखूनों से रात भर खूरोती रही सीना!
तो कभी पकड़ती रही बाल
हाथ पाँव मारती रही
जैसे शेर के पंजे में फसी हिरणी हो
चिखकर लोगों को जगा ना सकी
कपड़े से बंधी थी उसकी जुबान!
उसे क्या पता था अगर वो
जोर जोर से आवाज देती तो भी
लोगों के बंद पड़े है कान और
मृत पड़ी थी मानवता
जिसको जगाना ना था आसान
दूसरे के फटे में कोई टाँग नहीं देता
सब पल्ला झाड़ देते है कोई जिये या मरे!
और भी औरत थी जंगल में पर कोई
कुछ ना बोली मौन व्रर्त था आज उनका!
दबंग लोगों की पंचायत बैठी
लड़की पर सारी गलती मड़ी
कोई सुबूत ना मिला कानून को
आँखो पर बंधी पैसे की पट्टी
सिवा उसकी लूटी इज्जत के!
दलित की बेटी हो या
आदिवासियों की बहू बेटियों की
इज्जत व आँबरू आज भी
पुरखों से गिरबी है स्वर्णो की
वो सारे पुरूषो को भी बंधवा मजदूर है!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना
Sunday, 10 March 2019
"लकड़ी तोड़ती वो औरत"
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