मैं परिधि हूँ
तुम मेरे केन्द्र हो
मैं चाहे जितनी दूर रहूँ
केन्द्र तक ही मेरी मंजिल है
पृथ्वी चाहे कितनी चक्कर लगाए
सूर्य के इद्र गिद्र ही रहती है!
मेरा लक्ष्य मुझे सोने नहीं देता
बैचेन करता रातों को भी जगाकर
कविता करने को कहता
पर मैं जागकर सोचने लगती हूँ
आखिर वो मुझे सोने क्यों नहीं दे रहा!
कविता करना कैसे छोड़ दूँ
मैं अपनी अंतिम साँसो तक
कविता में लिखती रहूँगी
तुम पाने की कोशिश भी!
कभी तो ग्रहण लगेगा तुम्हारा मुझपर
और हमारा मिलन होगा
चाहे थोड़े देर ही सही
मैं इंतजार करूँगी उस वक्त का
जब सब कुछ ठहर जाएगा
शून्य पर आकर!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना
Saturday, 9 March 2019
"मैं परिधि हूँ"
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