Monday 4 March 2019

"हम तुम एक घर के दो कमरे"

हम तुम एक घर के
दो कमरे है
एक मैं तुम बंद
दूसरे में मैं
रात में दरवाजा खुलता
सुबह बंद हो जाता
दरवाजे से दिवारों से खिड़कियों से
बस कड़क कड़क की आवाज धीमी धीमी आती है...         जैसे कुछ टूटा हो
तुम मेरे अन्दर होकर भी बाहर हो
मैं बाहर होकर भी अन्दर हूँ
कब तक यूँ ही रहेंगे
शरीर के साथ
जब मन ना चाहे साथ
विवाह के सात जन्मों में क्यों अटके है
जब एक जन्म साथ निभा नहीं सकते
अलग क्यों नहीं हो जाते हम
इन दो कमरें के बंधन से
अपनी अपनी ज़िदग़ी को
अपने अपने तरीके से जीने के लिए..!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना

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