खूब सजती सँवरती
जैसे बलि के बकरे को
सजाया जाता आहूति के लिए
एक रात की दुल्हन बनती
रोज आते उसे दुल्हे लेने पर
कभी भी कोई डोली ले
अपने घर आँगन ना ले जाता!
माँ बन जनती उनके बच्चों की
पर पिता का नाम कभी कह पाती
ना ही समाज कभी मान्यता देता
जायज होकर भी नाजायज बने रहते!
क्योंकि उनकी माँग में सिदूंर नहीं
गले में मंगलसूत्र नहीं रस्मों व रिवाजों से
समाज ने संबंध बनाने की मुहर नहीं लगाई
बिना विवाह से संताने पैदा करती
वो खराब हो गई है!
कई पुरषों से सहवास कर पर
वो पुरूष खराब ना कर
उसके साथ मुँह काला कर
और अपनी रातें रंगीन बनाकर!
समाज के दोगले प्रतिमान है
एक औरत कई से संबंध बनाये तो रंडी,वैश्या,बेहय्या,गंदी जाने कितने नाम पर
कोई अपना नाम नहीं उसका!
पर पुरूष कई औरतों से
अंर्तरंग संबंध बनाकर भी
महान,अच्छा,संस्कारी भाई,पता,पिता
उसे कोई क्यों नहीं चरित्रहीन गंदा व रंडा कहता
फिर क्यों नहीं कोई अलग इलाका उनका बस्ता!
ये व्यवस्था ही पुरूष प्रधान है
जहाँ हर नियम पुरूष बनाता है
स्त्री मासिक धर्म हुआ तो अपवित्र ना हुआ तो
स्त्री है ही नहीं ना बच्चा पैदा करे तो बाझिन है
आजादी से बाहर जायें तो आवाँरा है
किसी से प्यार करें तो कुलनाशी है
पर पुरूष से संबंध बनाये तो
कुलटा है कालमुँही है!
अपने शरीर की भूख को
सिर्फ पुरूष शांत कर सकता है
औरत को परम्परा में रहकर करना होगा
वो भी जब पुरूष दें ना मांग सकती है
ना ही ले सकती है क्योंकि वो स्त्री है
उसे सब्र रखना होगा
मानवीय इच्छों को दवा होगा
मन को मारना होगा
संस्कारों का पिटारा ढ़ोना होगा
यही उसकाश स्त्री धर्म है
इस लक्ष्मण रेखा को लांध तो
वो खराब हो गई!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार
Sunday, 3 March 2019
"वो खराब हो गई"
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