Saturday 30 March 2019

"मेरी गईया"

बचपन में जब एक दिन
मेरे घर गो माता आई
ऐसा लगा मानो अब दूध की वर्षा होगी
खूब दूध खाकर हम भाई बहन मोटे बनेंगे
माँ ने ऐसा सोच गईया खरीदवाई!
हरि घास खाने गईया पहली बार
घर की चौखट से बाहर गई
किसी ने ईष्यावश कुछ खिलाया
या गईया ने खुद कुछ उल्टा पुल्टा खाया
आज तक ना पता चला
गईया तड़के सुबह मुँह से फेचकुर निकलने लगा
माँ ने जोर जोर से शोर लगाई
दौड़ी दौड़ी हम सबको जगाई
हमे तो ये सब मजाक लगा
शायद मैईया हम को आज
जल्दी जगाना चाहती हो!
डाॅक्टर को बुलाया गया
फिर भी गईया को ना बचाया जा सका
घर से थोड़ी दूर उसको गाड़ा गया
कोई जानवर ना उसे खा जाए
देर रात चमार उसकी चमड़ी छिल ले गया!
उसकी एक बछियाँ बची
माँ ने बुआ को दे दी
गाँव में हरा भरा खाएगी
शहर में रूखा सुखा खाती है
बुआ ने थोड़ पैसे के लिए
उसे दूसरे को बेच दी
फिर माँ मामा को दी
माँ की शादी में थो गोदान ना किया
उल्टे बहन से गोदान करवा लिया
ऐसा करते करते कई घर गई
अन्तिम मेरी चचेरी बहन को दी
उसने दूध मलाई खुद खाई
और उसके बच्चे तक को
धीरे धीरे हजम करती गई
झूठ कहा बछड़ा हुआ था बांछी नहीं!
फिर गईया का अंतिम बच्चा बचा था
अब मईया से ना रहा गया
गईया का फिर से घर मँगवाया
पापा को कहके अब तो जिये या मरे
यही रखूँगी बढ़िया सा घर बनवाया
अकेली बूढ़ी मईया सेवा नहीं कर पाई
नई नवेली बहु से कहा बहु ने
गोबर उठाने में अपनी नाक मुँह सिकोड़ी
सेवा कर मेवा मिलेगा इस विचार को त्यागी
घर में हँसते खेलती नन्ही सी पोती आई
दादी पोती को लौरी सुने
और तेल मालिश में लग गई
घर के पुरूषों ने इस काम से अपना हाथ उठाया
मैंने अपना मन पढ़ने में लगाया
एक दिन एक बधिया आया
गईया के अच्छे दाम देगा
ऐसा कहकर गईया को देखा
धन के लालच में माँ फँस गई बाद पश्चताई!
बूचड़ खाने जाकर उसे बेच दिया होगा
ये कहकर कलेजा फाड़ फाड़ कर मईया चिल्लाई
आज भी उसे याद करते करते
मईया की आँखें भर आती!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

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