बच्ची थी जब मैं
बचपना कुट-कुट कर भरा था मुझमें
अल्लड़ थी तब मैं
तितली जैसी चंचल थी मैं
रोज सवेरे अपने मित्र मंडली के संग
फूल चुराने जाया करती थी तब मैं
फूल तो फूल कली तक तोड़ लेती थी मैं
थोड़ी देर बाद फूल ही बन जाएगी
एक बार किसी की लगी
गुलाब की कलम उखाड़ लाई मैं
अपने घर के बाहर की क्यारी में लगाई
उसे गोबर का पुत्ता भी उस पर लगाई
पानी भी डाला मनभर उसमें
फिर भी बगैर धूप के ना बच सका वो
फिल एक दिन अपनी सखी के घर गई मैं
उसके खुले आँगन के कीचड़ में कमल सा
गुलाब का पौधा से पत्ता फुनक रहा था
ये देख ललचाई में
माँ की बात याद आई
अपना कोई राज़ या प्रियवस्तु किसी कोमत देना
और अगर देना तो फिर लेना मत
पर अब तो गुलाब की कलम दे चुकी थी मैं
अब पश्चात होता क्या जब चिड़ियाँ चुंग गई खेत!
मैंने अपनी सखी से कहा
ये पौधा मुझे दे दो
मेरा सुख चुका है
उसने देने से मना किया
कहा पौधा मैंने सींचा है
अब बस एक रास्ता बचा था
फिर से चोरी छुपे से गुलाब की
कलम को उखाड़ लाना
ला कर फिर अपने घर के क्यारी में लगाया
पौधा वैसा का वैसा हो गया
फिर से माँ की बात याद आई
किसी को कुछ देकर मत लेना
सखी "नुतन"से माफ़ी मांगी
कहा गुलाब की कलम फिर से
चुराकर तुम्हारे लिए लाउँगी!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना
Sunday, 10 March 2019
"गुलाब की कलम"
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