सब्र बाधे सो रहा है आदमी
क्यों सिसक कर रो रहा है आदमी!
शोर की चींखे,यहाँ पे ग़ुम गई
ज्यूँ हताश हो रहा है आदमी!
चाहतें हैं बढ़ रही हर रोज ही
पौध कैसी बो रहा है आदमी!
कुछ न कहना ही यहाँ बेहतर लगा
हाथ ख़ू से धो रहा है आदमी!
प्यार का ही करिये अब तो'अर्चना'
क्यों दुश्मन बनता जा रहा है आदमी!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
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