Monday, 30 April 2018
"नजरों से बहुत दूर हो तुम"
Thursday, 26 April 2018
"श्रापित हूँ मैं"
श्रापित हूँ मैं
पूर्वजन्म के कर्मों को
इस जन्म में कर्मफल समझ भोग रही
उस किये पाप से अन्जान हूँ
मैं फिर क्यों श्रापित हूँ मैं!
दुआ लगती है बड़ों की तो
क्या श्राप भी लगते उनके!
राम श्रापित रहे नारदमुणि के श्राप से
हर मानव जन्म पत्नी सुखवहीन रहे!
अहिल्या श्रापित रही ऋषि के श्राप से
राम चरण स्पर्श से मुक्ति पाई !
विष्णु श्रापित हुऐ
सति तुलसी के श्राप से
क्षणभर भर में पत्थर बने!
शनि श्रापित हुए
अपनी कुमाता के श्राप से
विकलंग क्षणभर के लिए बने!
मैं भी श्रापित हूँ
किसी के दिल को दु:खा कर
जीवन में प्रेमपक्ष शून्य रहा!
ऐसी कोई चीज जो मेहनत कर
ना मिले व किस्मत के सितारे भी ना दें
तो समझ लेना चाहिये कि
श्रापित हो तुम किसी के श्राप से!
कभी किसी को इतना मत तड़पाओं की
उसकी आत्मा तक तड़प उठे और
उसके मुख से श्राप निकल पड़े!
ये नकारात्म उर्जा है जो
जीवन को दुष्चकों में उलझाती है
वैसे ही आर्शिवाद सकारात्मक उर्जा है
जो जीवन की बाधाओं को दूर भगाती है आकारण किसी का ना श्राप लगता
ना ही आर्शिवाद
दोनों के लिए मन में
सच्चे भाव होने चाहिऐ!
फिर भी श्राप कभी भी किसी को
नहीं देना चाहिए
क्योंकि ये कभी भी
शुभफलदायी नहीं हो सकते!
श्रापित हूँ मैं!
कुमारी अर्चना
मौलिक मौलिक
पूर्णियाँ,बिहार
२७/४/१८
"चाँद सितारे तोड़ लाओ जानू"
चाँद सितारे तोड़ लाओ जानू
वादा किया था तुमने
जब प्यार किया था मुझसे
चाँद सितारे तोड़ लाउँगा !
अब चाँद सितारे तोड़ने का वक्त हो चला
ये प्रेम की 'अग्नीपरीक्षा" है
तुमको पास होना है जानू
तभी तुम्हारी मुझसे मोहब्बत साबित होगी! तुम चाँद सितारे तोड़ना
मैं ढाल बनकर रहूँगी तुम्हारे साथ
आँचल फैलाकर चाँद सितारों
से दुआ मागूँगी !
तभी तुम धोखे से चाँद सितारे तोड़ लेना
और मेरे आँचल में दे देना
मैं झट से ढ़क लूँगी
वादा पूरा होने पर फिर से
चाँद सितारों को तुम
आसमान में जोड़ देना !
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
११/५/१८
"गईया कुछ कह रही"
ना मैं हिंदु हूँ
ना मैं मुस्लिम हूँ
मैं केवल पशु हूँ!
बेजुब़ान हूँ ग़र जुवाँ होती तो
तुमको बतालाती मैं क्या चाहती हूँ!
मैं भी जीव हूँ मुझे भी जीने दो
मुझे भी प्रेम करने दो
मुझे भी अपनी पीढ़ी को
अगली पीढ़ी ले जाने दो
वरन् मैं भी नीलव्हेल,पाड़ा,तेंदुआ,
बाघ व गौरया,उल्लू जैसे हो जाउँगी
मैं केवल मादा हूँ जैसे
स्त्री व अन्य जीव है
संतति करना मेरी जीवन प्रक्रिया का अंग है!
ना मैं कोई देवी हूँ
ना ही माता पिता हूँ
मैं केवल पशु हूँ
स्त्री जैसे अपनी संतान को
स्तनपान कराती हूँ वैसे मैं भी!
परन्तु बकरी,भेड़,बंदरिया व कंगारूँ जैसे
जाने कितनी मादयें है जो स्तनपान करती है
तो क्या वो माता नहीं है!
और जो मादा पशु व पक्षी
स्तनपान नहीं करा पाती फिर भी
अपने संतानो की रक्षा व देखभाल करती है
तो क्या वो माता नहीं है!
धरा पे मनुष्य को खाने योग्य
असंख्यों वस्तु है पर
मैं क्यों दूधारूँ पशुओं मैं
एक हूँ प्रोटीन का बड़ा श्रोत हूँ
फिर भी मेरा संरक्षण क्यों
नहीं करते अज्ञानी मानव!
मुझे धर्म व जाति में ना बाँटो
जैसे तुमने इंसान को बाँटा है
हिंदू ,मुस्लिम,सिख व ईसाई
बाह्मण,राजपूत,वैश्य व छुद्र!
इसलिए ना मैं हिंदू हूँ ना मैं मुस्लिम हूँ
मैं केवल पशु हूँ
मुझे पशु ही रहने दो
इन्सान मत बनाओ!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना ©
29/12/18
"आओ हम भारतवासी मिलकर गाए"
आओ हम भारतवासी मिलकर गाए जनगण मंगल दायक राष्ट्रीयगान गाए आओ हम भारतवासी मिलकर वन्तेमातरम् राष्ट्रीय गीत गाए प्रेम व भाईचारे का संदेश जन जन पहुँचायें! शर्मोहय़ा कैसी देशभक्ति बनने में मुलक ना तेरा है ना मेरा है ये हमारा है! आओ हम सब भारतवासी मिलकर गाए समाज से जाति पाति का भेद मिटायें हम बहुभाषा देशवासी होकर भी राष्ट्रीय एकता अखण्डता का परिचय दुसरे देशों को करायें! बड़ा लोकतांत्रिक मुलक होने का विश्व में भारत का मान बढ़ायें तिरंगा प्रतिक चिह्न को फहराये और सदा इसका सम्मान करें
घर,दफ्तर,सरकारी और
गैर सरकारी संस्थाओं में इसे फहराये!
राष्ट्रभक्त है हम भारतवासी
विश्व को हमारा ये संदेश सुनाये!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
११/५/१८
"इश्क का खुदा है तू"
किसी के सच्चे इश्क की याद है तू
मोहब्ब़त पर लिखी इबारत है तू!
किसी प्रेमी की प्रेमिका के लिए इबादत है तू सुना है सच्चे प्रेमियों का खुदा भी है तू!
ताज कब्रगाह नहीं तू दो बूतों की
अल्लाह के दूत है बसते यहाँ!
मैं भी प्रेमी हूँ किसी के प्यार की
मेरी उससे मिलन की भी दुआ तू सुन लें!
उससे पहले की मैं फ़ना हो जाउँ!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना©
११/५/१८
"परत दर परत मैं"
परत दर परत मैं उतर रही हूं
तुम कहते थोड़ा और उतरो
और कितना उतरूं
परत दर परत मैं उतर रही हूँ
जैसे लगातार मृदा अपरदन से
उसका स्तर कमजोर हो जाता
वैसे ही मेरे अस्तित्व का अपरदन हो रहा! खिन्न हो रहा मेरा मन
छिन्न हो रहा मेरा तन
परत दर परत मैं उतर रही हूँ
अब मेरे उतरने की यही अंतिम सीमा है
इससे ज्यादा उतरी तो
मेरा अस्तित्व नष्ट हो जाएगा
विलुप्त अन्य जीव जंतुओं की तरह!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
१०/५/१८
"कतरन सी हो गई हूँ मैं"
कागज की कतरन सी हो गई हूँ
जो कल तक तुम्हारे पहरन में थी!
बांसी सी हो गई हूँ मैं
कल तक ताज़ी थी तुम्हारे लिए
आज बुढ़िया सी हो गई हूँ!
घर का पुराना समान सी हो गई हूँ मैं
जो कल तक नयी थी तुम्हारे लिए
बंद कोठरी में पड़े पड़े धूल
कब्र सी बन गई हूँ!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
©मौलिक रचना
३०/४/१८
"रात और दिन"
मेरे हिस्से में रात आई
रात का रंग काला है
इसमें कोई दूजा रंग नहीं मिला
इसलिए सदा सच्चा है
मेरी ज़िन्दगी भी अकेली है
कोई दूजा ना मिला!
फिर दिन का हिस्सा
सफेद रंग का है
जो दूजे रंग से मिल बना
झूठा सा दिखता है
फिर भी जीवन में विविध रंगों को
भरता है वो कहाँ गया जो
मेरे दिल को भाता था
शायद गुम हो गया
रात के काले में!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
११/५/१८
"हम तुम एक दुजे के बिना अधुरे है"
मेरे बिना तुम अधेरे हो तेरे बिना मैं अधुरी हूँ खुदा ने मुझे सुन्दर देह दी जिससे मैं तुम्हें लुभा सकूँ खुदा ने तुमको बहुत प्यार दिया जिसे तुम मुझे प्यार दे सको खुदा ने मुझे गर्भ धारण की शक्ति दी ताकि मैं तुम्हें अपने अंदर रखूँ पुरूष के साथ स्त्री के गुण दूँ और तुम महापुरूष बनो मैं तुम्हारी सहचरी! तुमको बाहुबल की शक्ति दी जिससे तुम आश्रय दे सकों खुदा ने मुझे ममता दी जिसको मैं तुम पर लुटा सकूँ खुदा ने तुमको बड़ा दिल दिया ताकि तुम मुझे अपने दिल में समां सको मेरे बिना तुम अधुरे हो तुम्हारे बिना मैं अधुरी हूँ! कुमारी अर्चना पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
१०/५/१८
चमेली के फूल
जब मैं छोटी थी फूलों की खुशबू
मुझे इत्र से ज्यादा भाँती थी
उन दिनों पापा के साथ
पुलिस थाना के कैपंस में ही
टाली के बने दो छोटो कमरे रहते थे
थाना के चारों ओर बाग बगीचे थे आम,कटहल,केला,जामुन,शरीफा के फल थे
क्यारियों में चमेली के फूल लगे थे
मैं यही सोचती थी ये फूल ही यहाँ क्यों लगें है
बाद पता चला इन पौधों को
अल्प जल ही चाहिए जैसे
मुझे तुम्हारा थोड़ा प्यार!
इनकी खुशबू भी बहुत देर तक टिकी रहती है
थाने का वातावण संध्या में गमगम करता था
चौकिदारों द्वारा सबेरे संध्या पौधों में
जल छड़काव किया जाता था
मैं और मेरे भाई भी चमेली के पौधों को
खुब पानी देते थे ताकि ज्यादा से ज्यादा
फूल खिले सफेद सफेद व बड़े बड़े!
संध्या को जब चमेली के फूल
अधखिले होते थे हम उन्हें तोंड़
सिरहाने रख लेती थी सुबह जब
पलक खुलती फूलों को पूर्ण खिला देख
खुशी से आँखे चमक जाती थी
मेरी उसको बार बार चुमती
बार बार सुघँती जा जा कर
मम्मी पापा को बताती थी
मम्मी कहते क्यों सूँघा लिया
भगवान को अब ये फूल नहीं चढ़ सकते!
पर मुझे तो किसी ने सूँघा नहीं
स्पर्श भी नहीं किया ना ही मैं बांसी हूँ
फिर मेरे भगवान ने मुझे
अपने चरणों में जगह क्यों नहीं दी
मैं इसी गम़ की घूलती हूँ
आसूँओं को उसका दिया
प्यार समझ दिन-रात पीती हूँ
मैं चमेली का फूल क्यों ना बनी!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक व अप्रकाशित रचना
9/1/18
"जिन्दगी अजीब है"
जिन्दगी अजीब है लट्टू लट्टू का खेल है इस खेल में कभी हार तो कभी जीत होती है! कभी हमजोली संग हम लट्टू लट्टू का खेल खेला करते थे आज जिन्दगी हमें लट्टू लट्टू सा गोल गोल घुमा रही है दुनिया बैठ हमारा तमाशा देख रही जिन्दगी अजीब है लट्टू लट्टू का खेल है! समय के साथ लट्टू का खेल बदला कसीनों ने ले ली इसकी जगह अब लोग दिमाग से दिल को खेलते है भावनाओं को पैसे से तौलते है जो जितना दाव लगा सके खेल में शान उसी की बढ़ती जाती है! सच्ची मोहब्ब़त कहीं नही दिखती किसी पे हम लट्टू हो जाते वो किसी और पे लट्टू हो जाते कोई हम पे लट्टू हो जाता मियाँ मिठ्ठू खुद पे लट्टू है पीठ पर लगाते टैटू है सब के सब लट्टू है जिन्दगी अजीब है लट्टू लट्टू का खेल है! कुमारी अर्चना मौलिक रचना पूर्णियाँ,बिहार १०/५/१८
"हे!भारत माता"
तुझपे शीश न्यौछावर करता हूँ
जब गया मैं जंगे आजादी पर
दुश्मनों से लड़ने व मरने।
गोली लगी पर भेद ना सकी
मेरा छत्तीस इंच का सीना!
पर धोखे से अपनों ने जब चीर दिया
मेरा सीना!
कभी मुड़भेड़ में कश्मीरियों के पत्थरों से
मरा
तो कभी सुकमा में नक्सलियों से
तो कभी घटिया भोजन खा के
तो कभी ठंड में बिना जूतों व गर्म कपड़ों के
तो कभी उन्नत अस्त्रों के अभाव में
तो कभी बड़े नेताओं की मेहरबानियों से
तो कभी बड़े अधिकारियों के
आदेश अवहेलना से
कभी परिवार की जुदाई में मरा
पर आत्मा तो मेरी रोज मरती है
जब मिलती अपमान व गालियाँ अपने ही देशवासियों से... हे!
भारत माता तुझ पे
शीश न्यौछावर करता हूँ !
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
१०/५/१८
"धन्य हुआ मेरा जीवन"
आर्या के आर्यावर्त में
आने का सम्मान मिला
भारत की जन्मभूमि जैसी गोदी मिली
भारत माता जैसी माता मिली
घन्य हुआ मेरा ये जीवन
जो मैंने इस देश में जन्म लिया
ओ मेरे भारत देश महान!
जियूँ तो तेरी आन के लिए
मरूँ तो तेरी शान के लिए!
दे वर मुझे ओ भारत माँ
दुश्मनों का सीना चीर सकूँ
फिर से मैं झाँसी की रानी!
तिरंगा ध्वज को ना झुकने दूँगी
लालकिला पे तिरंगा सदा लहराने दूँगी
दुश्मनों के वतन में भी
भारत का विजय पताका
लहरा कर छोडूँगी!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
११/५/१८
"मैं हिंदी"
मैं हिंदी एक भाषा हूँ
एक संस्कृति हूँ
एक सभ्यता हूँ
एक धर्म हूँ!
मैं हिंदी वर्षो से धूल फांकती
घर का पुराना समान हूँ
अनेकों अनेकों भाषाओं के
नीचे दबी रहती हूँ
मेरी भगीनी उर्दू भी मुझे
छोड़ चली है मायका
संस्कृत भी पीछे छूट चली
सखी भाषाओं से कट्टी हो चली
अँग्रेजी दुश्मन बनके जब
मेरे सीने पर चढ़ बैठी!
अपने ही वतन मैं रिफ्यूजी हो चली
अंग्रेज कबके मेरे वतन छोड़ चले
पर आज भी महारानी विकिटोरिया की
शान ए शौकत चलती है
जब अँग्रेजी भाषा में भारत की
शासनसत्ता चलती है!
मेरी पड़ी धूल झाड़ कर
गंगा जल छिड़कर मुझे शुद्ध करो
वेद मंत्रों को पढ़कर मेरा श्रीगणेश करो
प्रथम भाषा का दर्जा और सम्मान दो
तभी आर्यावर्त का मान बढ़ेगा
भारतीयों का मान बढ़ेगा
विश्व में भारत महान बनेगा!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना©
05/09/18
"आओ साझा संस्कृति साझा समाज बनायें"
कैसी संस्कृति कैसासमाजजिसकी हम दुहाईदेते,जो चिरकालसे निरन्तर परिवर्तित होती चलीआई! फिरअबक्योंनहीं?बंद दरवाजे नयेविचार आनेकेलिएखोलदो बंदखिड़कियाद्ध हवाखानेकेलिएखोलदो ताज़गी में ना केवल चितप्रसन्नहोगा बल्कि बांसी कीबंदबू भी जाती रहेगी!उनसंस्कारोकीबेड़ियोंको तोड़ मढ़ोड़ कर रखदोअपनेनियमबनाओ!कोईभीपूर्णनहींहै नामानवनासंस्कृति!पश्चिमकीस्वछंदताव पूर्वकेसांस्कारोंकामेलकरकेसाझा
संस्कृति बनओ साझा समाज बनाओ!
मानवनैतिकके बोझ से जीवंतमृतनहोजायें अतिभोगवाद से पलायनकर इहलोकसेचलेजायेंमध्यममार्ग
कोअपनाकर आंनदवादजीवन
उद्देश्य पाओ!कुमार अर्चना,मौलिकरचना,पूर्णियाँ,बिहार २७/४/१७
"मैं तेरे काबिल नहीं"
मैं तेरे काबिल हूँ या नहीं
एक बार आजमा के देखा होता माना कि तू बड़ा आदमी है श्याम पर एक बार गरीब राधा के दिल के झरोखे में झांका तो होता! तेरे जाने के बाद भी इसे खुला रखा था पर तू ना आया राधा का हालचाल पूछने को! तुझे भय था अगर तू आया तो वापस ना जाएगा मेरे खुली आँखियन में गिरफ्तार हो जाएगा जीवन पर मेरा साथी बनकर! पर राधा को श्याम के इंतजार में तड़फ -तड़फ ,तरस- तरस जीवन जो जीना था! कुमारीअर्चना मौलिक रचना पूर्णियाँ,बिहार २३/४/१८
"रेत"
Tuesday, 24 April 2018
"मैं दीमक हूँ"
हाँ में दीमक हूँ
घर दिवारों पर खिड़कियों पर
किताबों में पुरानी समानों पर
मिट्टी के अन्दर अपना
रैनबसरे बना लेती हूँ
धीरे धीरे फैलती जाती हूँ
जैसे बरगद की लटायें हो!
मैं कहीं भी जाउँ अपना स्थान घेर लेती हूँ
या यूँ कहे एक सुरक्षित दायरा बना लेती हूँ
मैं स्त्री नहीं हूँ जो
आजिवन असुरक्षित रहती हो
अपने अस्तित्व के लिए!
कोई मुझे जल्दी हिला ढूला नहीं सकता
उस जगह
उस वस्तु को
उस इन्सान को
जकड़ लेती हूँ
जब तक अग्नी की लपटों से
भष्म नहीं हो जाती हूँ या
कृत्रिम प्रयोग से मुझे नष्ट नहीं किया जाता!
मैं मृत पौधों को,लकड़ी,पत्ती,कुड़े,
मिट्टी व जानवरों के गोबर के साथ में
शक्की इन्सानों के दिमाग को
अपना निशाना बना
धीरे- धीरे उन्हें खोखला कर देती हूँ
मैं दिखती नहीं हूँ पर शंका के बीज के रूप में
हमेशा लोगों जेह़न में पलती हूँ!
कोई अपना घर खुद ही तोड़ लेता
तो कोई हिंसा पे उतारूँ होकर
हत्या तक कर बैठता
तो कोई आंतकवादी ही बन जाता
तो कोई सांमप्रदायवाद की आग
देश में लगा एकता अखण्डता को
खंडित करता कोई अपने ही देश से
गद्दारी कर इमान तक बेच देता!
मैं दीमक तो नहीं हूँ
ना ही कभी किताबी कीड़ा रही
पर कागजी कीड़ा रही हूँ
स्मृति कमजोर होने से कागजों पर
अभियास करती थी अब भी वही कर रही हूँ
अपनी कविताओं को लिखकर
कागज के कतरन कतरन को
चुन चुन का खा जाती हूँ
कलम की स्याही से काला कर देती हूँ
फिर मोतियों जैसे शक्ल में
सफेद सफेद शब्द उकेर आते है
कविता बनकर!
कुमारी अर्चना
जिला-जलालगढ़,पूर्णियाँ
बिहार मौलिक रचना
6/9/18