"लाल जोड़ा"
जब भी लाल जोड़ा को देखती हूँ खुद को दुल्हन बनी आईने में पाती हूँ तू सेहरा बाँधे सामने नज़र आता है सज संवर लेती हूँ खुद के ही हाथों से अपने बाहरी रूप रंग को! गालों पे पाउण्डर आँखों में काजल माथे पर बिंदी हाथों में पोला और शंखा पाँव में पाजेब और बिछुवा फिर जैसे ही सिंदुर लगाने जाती हूँ मैं फिर से मैले कुचेले कपड़े में आ जाती हूँ कोई मुझे तेरी सुहागन ना समझ ले
मैं तो.......तेरी! कुमारी अर्चना जिला-पूर्णियाँ,बिहार मौलक रचना© ३/४/१८
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