Monday 2 April 2018

"इच्छाशेष है"

बह चले मेरे भाव
भावनाओं के प्रवाह में
अब ना रूकेगें
जाये तू जिस ओर
जाउँगी मैं उसी छोर!
तेरे पदचिह्नों को ढूंढ़ती
अपना रस्ता बनाऊँगी
सब पिछल्लग्गू कहेंगे तो
कहने दो ना हँसते तो हँसने दो!
तू चलेगा तो मैं भी चलूँगी
तू दौड़गा तो मैं भी भागूँगी
तू रूकोंगे जहाँ मेरे मंजिल वहाँ
पर परछाई को कब
कोई पकड़ पाया है!

मेरे अंर्तमन में दबी
तुझे पाने की इच्छा शेष है
जिसे पाने के लिए
मैं और मेरा मन व्याकूल है!
क्यों दिल से तुझे चाहने की
आज भी इच्छाशेष है
भले तू तन से किसी और
का बन चुका है फिर भी
तुझे अपना बनना की इच्छाशेष है!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
२/४/१८

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