वो भांग की गोली
गटकी थी जब में
कुछ भी पता ना चला
शुद्धबुद्ध खो दूँगी!
पश्चताने लगी उस
अपनी अंजानी भूल पर
भोले बाबा का हरा हरा
शिवरात्री का प्रसाद था
मन को हरा करने वाला
पर भय से तन में जोर से
कंपन सी होने लगी
मैं नदी के भँवर में डूबने लगी
तो कभी पतवार की तरह तैरने
मन ही मन में सोचने लगी
वो लस्सी आज क्यों पी
प्रसाद अगर खराब हो या
अपने स्वास्थ अनुकूल ना लगे
तो छोड़ देना चाहिए!
बैचेन रही आधी रात तक
कभी खिलखिला हँसती
तो कभी फुट फुटकर रोती
कहीं पागल ना हो जाऊँ
कहीं कभी होश में ना आऊँ!
लगी प्रार्थना करने भगवन से
हे शिवशंकर अब मेरा क्या होगा
कैसे भी हो मेरा नशा उतारो!
बाद नींबू के सेवन करने पर
नशा फटा तो जान में जान आई
जीवन में नशा नहीं करूँगी
भोले बाबा की शपथ मैंने खाई!
नशा किसी भी पेय का हो
आदमी पीकर जानवर बन जाता
इसलिए ऐसे पेय पर्दाथों का
सदा परित्याग करें
जिससे आपका जीवन संकटमय
आपके चाहने वालों को दु:ख मिले!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
१०/४/१८
Tuesday, 10 April 2018
"वो भांग की गोली"
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