Thursday 19 April 2018

मैं मिट्टी सी हूँ

 मिट्टी सै बना तो है ये तन मेरा
 जिस पर मैं घमंड में इतराती  हूँ
 रोज रोज साबुन की झाग से 
 चाँदी सा चमचमाती हूँ 
 हीरा समझ कर सहेजती हूँ ! 
छोटे -छोटे  वस्त्रों  में  तो 
कभी  धीरे से सिने से अपनी साड़ी का 
पल्लू गिराकर खुला खुला बदन दिखाती हूँ
तुम देख मेरा तन को लार टपकाते तुम हो !
 मुझे पाने की चाहत में 
 मेरी ओर खीचें चले आते हो 
लट्टू की तरह तुमको मैं 
 अपने आगे पीछे नचाती हूँ 
 फिर पुरूष तुम्हारे प्रेमपाश में फंसकर 
 अपना सब  कुछ  गँवा देती हूँ
 सियार से ज्यादा धुर्त हो तुम पुरूष 
 जैसे ही ढल जाता है मेरा यौवन
 नये कोपले सी कलि ढूढ़ते हो तुम ! 
 भंवरे जैसे भी हो तुम 
 कभी  किसी  फूल पर 
 तो कभी किसी फूल पर 
 एक नजर नहीं टिकी रहती तुम्हारी ! 
 मिट्टी के इस देह से तो तुमको मोह है 
 पर मिट्टी के अंदर बसे
 दिल से तुमको प्यार नहीं
 इसलिए सदा मेरे जज्ब़ातों से
 कोई ना कोई खेल तुम खेलते हो !
 मैं नारी भी मिट्टी हूँ
तुम पुरूष भी मिट्टी हो 
 एक दिन दोनों ही मिट्टी में मिल जाएगें 
 फिर मिट्टी से इतना प्रेम क्यों करते हो 
 आओ  तुम  मुझसे  प्रेम  करो 
 मैं  तुम से ! 
 कुमारी अर्चना 
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार
27/12/18

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