परत दर परत मैं उतर रही हूं
तुम कहते थोड़ा और उतरो
और कितना उतरूं
परत दर परत मैं उतर रही हूँ
जैसे लगातार मृदा अपरदन से
उसका स्तर कमजोर हो जाता
वैसे ही मेरे अस्तित्व का अपरदन हो रहा! खिन्न हो रहा मेरा मन
छिन्न हो रहा मेरा तन
परत दर परत मैं उतर रही हूँ
अब मेरे उतरने की यही अंतिम सीमा है
इससे ज्यादा उतरी तो
मेरा अस्तित्व नष्ट हो जाएगा
विलुप्त अन्य जीव जंतुओं की तरह!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
१०/५/१८
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