Tuesday 24 April 2018

"मैं दीमक हूँ"

हाँ में दीमक हूँ
घर दिवारों पर खिड़कियों पर
किताबों में पुरानी समानों पर
मिट्टी के अन्दर अपना
रैनबसरे बना लेती हूँ
धीरे धीरे फैलती जाती हूँ
जैसे बरगद की लटायें हो!
मैं कहीं भी जाउँ अपना स्थान घेर लेती हूँ
या यूँ कहे एक सुरक्षित दायरा बना लेती हूँ
मैं स्त्री नहीं हूँ जो
आजिवन असुरक्षित रहती हो
अपने अस्तित्व के लिए!
कोई मुझे जल्दी हिला ढूला नहीं सकता
उस जगह
उस वस्तु को
उस इन्सान को
जकड़ लेती हूँ
जब तक अग्नी की लपटों से
भष्म नहीं हो जाती हूँ या
कृत्रिम प्रयोग से मुझे नष्ट नहीं किया जाता!
मैं मृत पौधों को,लकड़ी,पत्ती,कुड़े,
मिट्टी व जानवरों के गोबर के साथ में
शक्की इन्सानों के दिमाग को
अपना निशाना बना
धीरे- धीरे उन्हें खोखला कर देती हूँ
मैं दिखती नहीं हूँ पर शंका के बीज के रूप में
हमेशा लोगों जेह़न में पलती हूँ!
कोई अपना घर खुद ही तोड़ लेता
तो कोई हिंसा पे उतारूँ होकर
हत्या तक कर बैठता
तो कोई आंतकवादी ही बन जाता
तो कोई सांमप्रदायवाद की आग
देश में लगा एकता अखण्डता को
खंडित करता कोई अपने ही देश से
गद्दारी कर इमान तक बेच देता!
मैं दीमक तो नहीं हूँ
ना ही कभी किताबी कीड़ा रही
पर कागजी कीड़ा रही हूँ
स्मृति कमजोर होने से कागजों पर
अभियास करती थी अब भी वही कर रही हूँ
अपनी कविताओं को लिखकर
कागज के कतरन कतरन को
चुन चुन का खा जाती हूँ
कलम की स्याही से काला कर देती हूँ
फिर मोतियों जैसे शक्ल में
सफेद सफेद शब्द उकेर आते है
कविता बनकर!
कुमारी अर्चना
जिला-जलालगढ़,पूर्णियाँ
बिहार मौलिक रचना
6/9/18

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