Thursday 26 April 2018
"रेत"
सपने रेत ही तो है पल में बनते
पल में टूट जाते रेत पर बनाये
शीश महल भी ढ़ेर हो जाते
बालू की तरह! फिर मैं यहाँ बैठी
तुम्हारे इतंजार कर रही तुम तो ना आये
हवा के झौंके की तरह जाने कहाँ उड़ चले
पर ये बिखरे- बिखरे
सुलझे -सुलझे रेत तुम से अच्छे है धीरे धीरे तो मैं इनकों जान पायी प्यार हो गया
मुझे इन रेतों से! चाहे कितने भी
आँधी व तूफान आये ये उड़ कर भी
थोड़े -थोड़े यही रह जाएगें
अपने चिन्ह में! पर तुम! मैं इसी रेत पर
मरना चाहती हूँ ये भी मुझे प्यार दे सके अपनी रेत में मुझे
रेत बनाकर! कुमारी अर्चना पूर्णियाँ,बिहार मौलिक रचना २६/४/१८
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