सुबह सबेरे घर आँगन में
कू कू कहकर प्यारे बोल सुना
सबका मन बहलाती
उन गौरैयों को बुलाओ!
हरे भरे पेड़ों पर फुदकती
घर -आंगन की चौखट से फुर्र हुए
गुमशुम हुई खिड़िकियों की जालियों में
उन गौरैयों को फिर से फंसाओ!
तिनकों से सुख- दुख का
घरौंदा बनाने वाले किसी
अपने को बुलाओ!
सुपरमार्कट संस्कृति के कारण
घटती पुराने पंसारी की दुकानों से
खाना और घोंसले की तलाश में
शहर से दूर निकल जाती गौरैया
उन प्यारे मेहमानों को बुलाओ!
झटपट छत पर दाना चुगने वाली
को थोड़े सा दाना और थोड़ा सा पानी दे
उन गौरैयों को खिलाओ!
आधुनिक गगनचुम्बी इमारतें बनने से
रहने को जगह न मिलती
उन गौरैयों को गांव में बसाओ!
प्रदूषण और विकरण से नित
बढ़ते तापमान से
पल में प्राण गँवाने वाली
उन प्रजाति गौरैयों को बचाओ!
जो खेतों में सदा प्रहरी बनकर
कीटों को खा कर अपना पेट भरती
अनाजों पर रसायन छिड़काव से
मरने वाली उन गौरैयों को बचाओ!
मोबाइल टावर पर जो बैठी चिड़ियाँ
केवल मोबाइल का रिंगटोन न बन जाएँ
उन गौरैयों को बचाओ!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
८/४/१८
Saturday, 7 April 2018
"ऐ कोई तो गौरेयों को बचाओ"
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