Monday 16 April 2018

"जब मैं दर्पण देखती हूँ"

जब मैं दर्पण देखती हूँ
दर्पण मुझे देखती है
वो हँसती है इठलाती है मुझ पर
सोचती हूँ मैं कितनी सुन्दर हूँ
दर्पण मेरे अंदर की
कमियों को छुपा लेती है
मैं दर्पण के ऊपर पड़ी धूल को
दर्पण मेरे मन को झाँकती है
मैं दर्पण को!
दोनों को दर्द होता है
जब दोनों के दिल प्यार में टूटते है
मेरा दिल टूटकर जुड़ जाता है
पर दर्पण का कभी नहीं
इसलिए मैं दर्पण को संभालती हूँ
दर्पण मुझ को क्योंकि
दोनों को एक दुसरे की
आदत सी हो गई है!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
१६/४/१८

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