"नजरों से बहुत दूर हो तुम"
दूर बहुत दूर हो तुम मेरे नजरें तुम तक नहीं जा पाती ये मेरे नेत्रों की सीमा है
या मेरे मन की जो तुम तलक जा नहीं पाती ! काश मैं पक्षी होती अपने परों को फड़फाड़कर हुई तुम तलक आ जाती ! काश् मैं पवन होती
बहती हवा की झौंका बनकर तुम तलक आ जाती ! काश् मैं नदी होती
बहती जलधारा सी बहकर
तुम तलक जा पहुँचती ! पर ना मैं पक्षी हूँ ना पवन हूँ ना ही नदी हूँ मैं एक तड़पती आत्मा हूँ ! जो अपने प्रियतम के पास जाना तो चाहती है
पर जा नहीं पाती ! मैं लोक लाज की सारी मर्यादा व सरहदें तोड़ जाती
पर क्या करूँ तुम जो नहीं चाहते
कि मैं अमर्यादित हो जाउँ
इसलिए मैं तुम तलक जा नहीं पाती ! कुमारी अर्चना मौलिक रचना पूर्णियाँ,बिहार, 17/12/18
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