Monday 13 November 2017

संभोग

"संभोग"
संभोग स्पर्श ही तो है
दो जिस्मों के
बाहरी अंगो का
जैसे जल में रहकर भी
जलकुंभी नहीं ठूबती
वैसे तुम मेरे अंदर प्रवेश कर भी
ऊपर ऊपर ही रह जाते
और मैं ना तुम्हारे अंदर झाँक पाती
संभोग स्पर्श ही तो है!
एक क्षणिका अनुभूति
मांनसिक तृप्ती का
और आत्मा अतृप्त
कितना जान पाते
हम एक दूसरे को
बस आघा अधुरा!
संचयी भाव है
हमारे मन का
किसी के तन को पाने का
फिर भी प्यार व विश्वास
रह जाता अवशेष !
संभोग स्पर्श ही तो है!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
१३/११/ १७

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