Tuesday 21 November 2017

"अस्तत्वहीन"

तुम्हारे लिए ही तो
स्वंय को अस्तित्वहीन कर
समुद्र का जिस्म़ ओढ़ लिया
तुम भी अपने पुरूषार्थ का
प्रत्याग कर नदी बन बह जाओ
आकर मुझ में सम़ा जाओ!
तुम बिन मैं अपवित्र हूँ
खारा जल हूँ
जो किसी के सुग्रह्य नहीं
तुम मुझ में संगम कर
मुझे गंगा कर दो!
मैं रोज रोज लहरों की चोट
सहकर भी जीवित हूँ
तुम आकर इन इठलाती हुई
लहरों को शांत कर दो!
आओ हम प्रेम का मंथन करें
दोनों के शेष बचे हुए
अहंम को समाप्त कर
संसार के लिए अमृतधारा
बन बह जायें!
कुमारी अर्चनी
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
22/11/17

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