Sunday, 26 November 2017

"रजोधर्मचक्र"

बालकाल की समाप्ती पर
चक्रीय रूप से चलने वाली
तीन से पाँच दिनों तक
अंडाणु बनने की प्रकिया में
डिम्ब का पुरूष शुक्राणुों से
असम्मलित होने की अवस्था में
स्त्री योनी से लगातार
रक्त स्त्राव का होना ही
रजोधर्मचक्र है
ये स्त्री होने का भी कर्म है
और उसके युवा होने सूचक भी!
रजोधर्म ना होने की स्थिति में
गर्भधारण करने में अक्षम स्त्री
जीवित मृत्यु तुल्य है!
फिर भी इस अवस्था से हर महीने
स्त्री को गुजरना ही पड़ता है अवसाद्,चिड़चिड़पान और दर्द की असहायनीय पीड़ा से सहनी होती! कपड़ा से ही काम चलना पड़ता है
पर संक्रमण का खतरा भी बना रहता
क्योंकि सरकार की ओर से
बाँटे जा रहे नैपकिन
कभी मिलते है कभी नहीं
बाहर के नैपकिन मँहगे है कि
सबके बस की बात नहीं
इसे हर महीने खरीद सके!
इस पीड़ा से मुक्ति"महापरिनिर्वीण"
व "मोक्ष" लेने से भी नहीं मिल सकती
जब तक पौढ़ताकाल खत्म होकर
वृद्धावस्था नहीं आ जाता!
रोजनावृति के बाद भी
स्त्रीयों को राहत ना मिलती
सौर्दय क्षीण होता जाता
कई बिमारियों की चपेट में
वो  असमय आ जाती!
ये स्त्री का अपवित्रता का काल है
मनु का शास्त्र क्या कहता है
चौथे दिन स्नान के बाद ही
स्त्री शुद्ध होती है
अछूत है वो किसी महामारी जैसी
उसे कोमल बिस्तर को त्यागकर
नीचे शयन करना होगा
भगवान के अराधना योग नहीं
इसलिए पूजापाठ बंद करना होगा
चुल्हा चौका में न घुसना होगा
अन्न देवता रूष्ट हो जाएगें
अलग बरतनों में खाना होगा
सारे बरतन में छूत धुस जाएगें
बड़े बुजुर्गो को स्पर्श नहीं करना होगा
पतिदेव व श्रृंगार से दूर रहना होगा
जो स्त्री रूप में अधिकार भी है
पेड़ पौधो को नहीं छूना होगा
वो हरे से पीले पड़ जाएगें
सदा खाना व अचार को
न हाथ लगाना होगा
वो खराब हो जाएगें
मुझ स्त्री की तरह!
घर के बाहर कदम न रखना होगा
बुरी नज़र व प्रभाव में आ सकती हूँ!
इस अवस्था में संबंध बनाने से
पीड़ा अंतहीन हो जाती पर
पत्नी होकर कैसे पति परमेश्वकर का
विरोध कर सकती है
मौन होकर अन्य दर्दो के समान ही
ये भी सह लेती हैं
जैसे अपमान
गाली गलौज
मारपीट
लातघूसा
तिरस्कार
धृणा
व उपेक्षाओं को..
स्त्री जो ठहरी
सब कुछ सहना ही होगा
द्वितीय लिंग है वो
प्रथम लिंग के नीचे
सदा ही रहना होगा
चाहे जितना उँचाई छू लें!
कुछ हँसते है
तो कुछ दया दिखाते
ऐसी अवस्था में जब
मेरी चाल धीमी
चेहरे का रंग उड़ जाता
बदन दर्द से कराहता
बिस्तर पर जाने को
तन और मन दोनों चाहता
पर घर और बाहर दोनों ही
जगह काम करना पड़ता है
मैं पूछना चाहती हूँ
उस पुरूष समाज से
मुझ पर दया नहीं आती तो
खुद ही ये दर्द क्यों न ले लेते
रजोधर्मचक्र का
और नौ महीने की कोख के
दायित्वभार से आज़ाद कर दो मुझे!
मुझे मातृत्वसुख व
ममतामयी नहीं बनना
ना ही महान बनना है
कुछ वर्षों के लिए ही सही
तुम मेरा कर्म करो
मैं तुम्हारा क्रिया
फिर मैं तो हूँ ही!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
२६/११/१७

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