"परिकल्पना"
जब मैं स्त्री होकर
पुरूष बनने की
परिकल्पना करती हूँ
यकायक मेरी रंगो में
वही स्फूर्ति वाला
लाल लहू दौड़ता है
वो ओज गुण
अंर्तआत्मा में समाता है
बाजूँओं में वही शक्ति
मेहसूस करती हूँ
सभी जीवों में श्रेष्ठता का
विधा बुद्धि बल में
अंहम का भाव!
मुझे आकर्षित करता
सुकोमल स्त्री देह
उसके सुन्दर कठोर नितंम्ब
उन्हें छूने व दबाने का दंभ
उससे असीम सहवास की चाह
ले जाती बार बार मुझे उसके समीप
क्योंकि पुरूष हूँ मैं!
वसना मेरे पुरूषत्व का
प्रधान गुण है उसकी पूर्ति
स्त्री का पूर्ण शरीर है
हाँ मैं पुरूष हूँ!
सृष्टी को आगे बढ़ाने का
परम दायित्व है मुझ पर है
मैं ही क्रिया व कर्म दोनों को करूँगा
परन्तु फल स्त्री को ही पाना होगा
ये दैविय प्रदत्व गुण है
मेरी शाररिक बुनावट
इसलिए स्त्री से भिन्न है
स्त्री सिर्फ सहयोगनी है
मेरे संतान जनने की प्रक्रिया की!
मैं पुरूष रूप में
वही पुरूष हूँ
फर्क सिर्फ इतना है कि
स्त्री रूप में
एक पुरूष की चाह है
और पुरूष रूप में एक स्त्री
एकनिष्ठ प्रेम ही मेरी पूर्णता है
सिर्फ तुमको पाउँ
स्त्री या पुरूष बनकर!
कुमारी अर्चना
पूर्णिया,बिहार
मौलिक रचना
13/11/17
Monday 13 November 2017
परिकल्पना
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment