Wednesday 29 November 2017

"आर्दश पिता"

पिता....
घर का बगीया का वो माली है
जो अपने सभी पौधों को
एक बराबर समझता है!
फूलों की तरह सहेजता व सवाँरता
अपने खूऩ पसीने की कमाई से
सींच-सींच कर बड़ा करता!
अपनी घर की प्रथम पाठशाला में
जीवन जीने का सलीका सिखलाता!
मेहनत का फल सदा मीठा होता
निराश न होना कठिन वक्त पे
सदा ही आशा की राह दिखाता!
मेरे बच्पन में पिता का साथ न मिला
माँ की संध्या में बच्पन बीता
पिता का नाम तो दाखिले पर मिला
पर हाथ पकड़कर ले जानेवाले
पिता की वो अँगुलियाँ न मिली
जूता व मौजा को पहनाने वाले
कमीज की टाई ठीक करने वाले
वो स्नेहल भरे हाथ ना मिले
सुबह शाम पढाने वाले
स्कूल की कार्यक्रम में जाने वाले
साथ लुकाछिपी खेलने वाले
वो पिता नहीं मिले जो
हम भाई बहन को चाहिए थे!
न स्कूल की वापसी पर बसता ढोती माँ!
आते जाते नन्हों की पीठ पर
भारी बसता सदा रहा
पिता सदा बाहर ही रहे
जब घर में भी रहे तो
कटे कटे से रहे
विचारों का सही न तालमेल बना
न हमारा परिवार कभी पूरा हुआ!
जिंदगी संधर्ष करने का सबक भी
नन्हें कदम की जगह
मजबूत कदमों ने ली
कॉलेज व बाद कोचिंग
कहीं भी जाने का निर्णय
हमनें खुद ही लिए!
घर के बाहर की दुनिया खुद देखी
पर कमी हमेशा से रही
उस "आर्दश पिता" की !
जो कदम कदम पर साथ दें!
भटके गर बच्चा तो
सही राह दिखाये!
समय पर बच्चों का जीवन सवार दें!
पिता का दायित्वों को पूरा कर!
केवल शिक्षा दे देना ही काफी नहीं
कौन शिक्षा दीक्षा उसे अंधेरे से
उज्जवल भविष्य की ओर ले जाएगी
ये भी परहेदार की तरह देखना काम है!
बच्चों का योग्य समय पर विवाह करना
बाद उनके संतानों के लिए भी
कुछ उत्तदायित्व वहन करें!
उनको अपने आर्थिक संसाधनों
पर निर्भर तो नहीं
आत्मनिर्भर बनाने का
हर संभव सहायता करें!
इसलिए कहा जाता है
पिता घर का पिल्लर है
जो घर को विभिन्न आपदाओं व
संकट से बचाता है!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
२९/११/१७

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