Friday, 17 November 2017
नदी हूँ मैं
"नदी हूँ मैं"
नदी हूँ मैं
सभ्यताओं को बसाती
और उनका उजाड़ती भी
मिश्र में नील नदी बनके
हड़प्पा में सिन्धु नदी !
नदी हूँ मैं
तोड़ दूँगी अपनी धारा को
लांध जाऊँगी अपनी ही
लक्ष्मण रेखा को!
नदी हूँ मैं
देश सीमा में ना बँधी
जिसे मैं पार ना कर सकूँ
सिन्धु,रावी व ब्रह्मपुत्र नदी
की बहती अमृत धारा हूँ!
नदी हूँ मैं
कोई धर्म नहीं
जो संहिताबद्ध हो
प्रकृति रूप में दैवी समझ
पूजा अर्चना की जाती हूँ
इसलिए धरा पे पाप मिटाने
आपदा बनके प्रलय लाती हूँ
नदी हूँ मैं
कभी जीवन दायनी बन जाती
तो कभी पापनाशनी बन जाती
कभी सरस्वती जैसी सुख जाती तो
कभी कोशी व गंगा जैसी बाढ़ लाती हूँ
अरबों की जनसंख्या का
गंदगी का बोझ उठाते उठाते
मैं थक चुकी हूँ
यूँ कहे की मैं हार चुकी हूँ
आखिर मैं छोटी नदी हूँ
सागर तो नहीं
जो सब समाँ लूँ
अपने तल में
सब निगल लूँ
सब पचा लूँ
और ठेकार तक ना करूँ!
नदी हूँ मैं!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
18/11/17
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