Friday 24 November 2017

"मैं किताब सी"

किताब मेरी जैसी नहीं
पर मैं किताब सी हूँ
कई शब्दों की श्रृखंला से
कई पन्नों से मिलकर बनी
जैसे पूरा जीवन हो!

किताब पढ़ने के लिए
पाठक चाहिए
और मुझे भी
केवल ऊपर से नीचे नहीं
मन से अंर्तमन को!

ढूढ़े मुझमें ही मुझे
समझे मेरे अंतस में जाकर
कितनी गर्त में मैं हूँ
और कितनी ऊपर!

पढ़े मेरे बीती जिंदगी
की बंद किताब को
बचे उजास पन्नों पर
लिखें प्रेमकाव्य की खुली किताब
जो बन जाए एक महाकाव्य!

चाँद की चाँदनी और
ताजमहल की खुबसूरती भी
फिक्की पड़ जाए
जब उड़े भिन्नी भिन्नी खुशबू तो
गुलाब की महक कम पड़ जाए
प्रसिद्ध इतना ज्यादा हो कि
टाइम पत्रिका के कर्वर पा आ जाए!

मेरी किताब भी मुझ सी कुँवारी है
कोई ना आया पन्नें पलटने को
तुम आकर मुझे ब्याहता कर दो
भर दो प्यार व विश्वास के रंग से
मेरी जिंदगी की किताब के पन्नों को
अपनी मौजूदगी दें
भर दो मेरे सुनी मांग को
मधुकरी को मधुकर का मधुमास दो!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मैलिक रचना
२५/११/१७

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